
कोरेगांव भीमा युद्ध का संक्षिप्त इतिहास (History of bhima koregaon Battle)
भीमा- कोरेगांव का युद्ध छुआछूत जैसी सामाजिक बुराई के प्रति जन्मा विद्रोह कहा जाना ज्यादा ठीक होगा. दरअसल पेशवाओं के शासन में शूद्रों को थूकने के लिए अपने गले में हांडी लटकाना जरूरी था, साथ ही कमर पर झाड़ू बांधना जरूरी था जिससे धरती पर पड़े उनके पैरों के निशान मिटते रहें.
अंग्रेज अपनी नीति के तहत सभी राजाओं के राज्य को अपने राज्य में मिलाना चाहते थे इसी कारण उनकी नजर पुणे राज्य पर थी.
अंग्रेजों ने पुणे के पेशवा और बड़ौदा के गायकवाड़ के बीच राजस्व-साझाकरण विवाद में हस्तक्षेप किया, और 13 जून 1817 को, कंपनी ने पेशवाबाजी राव द्वितीय को गायकवाड़ के सम्मान के दावों को छोड़ने और अंग्रेजों को एक बड़ा हिस्सा सौंपने के लिए मजबूर किया था. यह विवाद आगे बढ़ा और इसका परिणाम कोरेगांव के लड़ाई के रूप में सामने आया था.
भीमा कोरेगांव का युद्ध, 1 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट के बीच भीमा-कोरेगांव में हुआ था.
ज्ञातव्य है कि "कोरेगांव" महाराष्ट्र के पूना जनपद की तहसील में पूना नगर रोड़ पर भीमा नदी के किनारे बसा हुआ एक छोटा सा गांव है.

Source: i2.wp.com"वो सिर्फ 500 थे, लेकिन दिल में जज़्बा था कि जातिवाद को हराना है। वे जान पर खेल गए, कई तो कट मरे, पर आख़िरकार, भीमााा कोरेगांव के मैदान से पेशवा की फ़ौज भाग गई। 1818 को इसी दिन महार सैनिकों ने पेशवाई को हराकर भारत को जातिमुक्त और लोकतांत्रिक बनाने की दिशा में पहला ऐतिहासिक क़दम बढ़ाया" जो आज से लगभग दो सौ साल पहले घटित हुई थी।
कोरेगांव भीमा युद्ध का क्या महत्व है
कुछ इतिहासकारों का मानना है की महारों और पेशवा फ़ौजों के बीच हुए इस युद्ध को विदेशी आक्रांता अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारतीय शासकों का युद्ध था, तथ्यात्मक रूप से वो ग़लत नहीं हैं।
लेकिन कुछ इतिहासकार मानते हैं कि महारों के लिए ये अँग्रेज़ों की नहीं बल्कि अपनी अस्मिता की लड़ाई थी। अंत्यजों यानी वर्णव्यवस्था से बाहर माने गए 'अस्पृश्यों' के साथ जो व्यवहार प्राचीन भारत में होता था, वही व्यवहार पेशवा शासकों ने महारों के साथ किया।

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इतिहासकारों ने कई जगहों पर ब्यौरे दिए हैं कि नगर में प्रवेश करते वक़्त महारों को अपनी कमर में एक झाड़ू बाँध कर चलना होता था ताकि उनके 'प्रदूषित और अपवित्र' पैरों के निशान उनके पीछे घिसटने इस झाड़ू से मिटते चले जाएँ। उन्हें अपने गले में एक बरतन भी लटकाना होता था ताकि वो उसमें थूक सकें और उनके थूक से कोई सवर्ण 'प्रदूषित और अपवित्र' न हो जाए। वो सवर्णों के कुएँ या पोखर से पानी निकालने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे।

इस युद्ध में मारे गए सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए एक चौकोर मीनार बनाया गया है, जिसे कोरेगांव स्तंभ के नाम से जाना जाता है। यह महार रेजिमेंट के साहस का प्रतीक है। इस मीनार पर उन शहीदों के नाम खुदे हुए हैं, जो इस लड़ाई में मारे गए थे.
इस कोरेगांव स्तंभ शिलालेख में लड़ाई में मारे गए 49 कंपनी सैनिकों के नाम शामिल हैं, इनमें से 22 महार जाति के लोग थे. वर्ष 1851 में इन्हें मेडल देकर सम्मानित किया गया था.
इस युद्ध को महारों के शौर्य के लिए भी जाना जाता है क्योंकि इस युद्ध में केवल 500 महार सैनिकों ने 12 घंटे की लड़ाई में पेशवा के 28 हजार सैनिकों वापस हटने पर मजबूर कर दिया था.
इस युद्ध में पेशवा की हार के बाद पेशवाई खतम हो गयी थी और अंग्रेजों को इस भारत देश की सत्ता मिली। इसके फलस्वरूप अंग्रेजों ने भारत देश में शिक्षण का प्रचार किया, जो हजारों सालों से बहुजन समाज के लिए बंद था।
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